Sanskrita
अभ्यास-योग – अभ्यास से; युक्तेन – ध्यान में लगे रहकर; चेतसा – मन तथा बुद्धि से; न अन्य गामिना – बिना विचलित हुए; परमम् – परं; पुरुषम् – भगवान् को; दिव्यम् – दिव्य; याति – प्राप्त करता है; पार्थ – हे पृथापुत्र; अनुचिन्तयन् – निरन्तर चिन्तन करता हुआ |
हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरन्तर लगाये रखकर अविचलित भाव से भगवान् के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है |
इस श्लोक में भगवान् कृष्ण अपने स्मरण किये जाने की महत्ता पर बल देते हैं | महामन्त्र हरे कृष्ण का जप करने से कृष्ण की स्मृति हो आती है | भगवान् के शब्दोच्चार (ध्वनि) के जप तथा श्रवण के अभ्यास से मनुष्य के कान, जीभ तथा मन व्यस्त रहते हैं | इस ध्यान का अभ्यास अत्यन्त सुगम है और इससे परमेश्र्वर को प्राप्त करने में सहायता मिलती है | पुरुषम् का अर्थ भोक्ता है | यद्यपि सारे जीव भगवान् की तटस्था शक्ति हैं, किन्तु वे भौतिक कल्मष से युक्त हैं | वे स्वयं को भोक्ता मानते हैं, जबकि वे होते नहीं | यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान् ही अपने विभिन्न स्वरूपों तथा नारायण, वासुदेव आदि स्वांशों के रूप में परम भोक्ता हैं |
भक्त हरे कृष्ण का जप करके अपनी पूजा के लक्ष्य परमेश्र्वर का, इनके किसी भी रूप नारायण, कृष्ण, राम आदि का निरन्तर चिन्तन कर सकता है | ऐसा करने से वह शुद्ध हो जाता है और निरन्तर जप करते रहने से जीवन के अन्त में वह भगवद्धाम को जाता है | योग अन्तःकरण के परमात्मा का ध्यान है | इसी प्रकार हरे कृष्ण के जप द्वारा मनुष्य अपने मन को परमेश्र्वर में स्थिर करता है | मन चंचल है, अतः आवश्यक है कि मन को बलपूर्वक कृष्ण-चिन्तन में लगाया जाय | प्रायः उस प्रकार के कीट का दृष्टान्त दिया जाता है जो तितली बनना चाहता है और इसी जीवन में तितली बन जाता है | इसी प्रकार यदि हम निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करते रहें, तो यह निश्चित है कि हम जीवन के अन्त में कृष्ण जैसा शरीर प्राप्त कर सकेंगे |