अध्याय 11 : विराट रूप
 
श्लोक 11.53
 
 

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया |
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा || ५३ ||
 

 
 

– कभी नहीं; अहम् – मैं; वेदैः – वेदाध्ययन से; – कभी नहीं; तपसा – कठिन तपस्या द्वारा; – कभी नहीं; दानेन – दान से; – भी; इज्यया – पूजा से; शक्यः – संभव है; एवम् -विधः – इस प्रकार से; द्रष्टुम् – देख पाना; दृष्टवान् – देख रहे; असि – तुम हो; माम् – मुझको; यथा – जिस प्रकार |

भावार्थ


तुम अपने दिव्य नेत्रों से जिस रूप का दर्शन कर रहे हो, उसे न तो वेदाध्ययन से, न कठिन तपस्या से, न दान से, न पूजा से ही जाना जा सकता है | कोई इन साधनों के द्वारा मुझे मेरे रूप में नहीं देख सकता |




तात्पर्य

 

कृष्ण पहले अपनी माता देवकी तथा पिता वासुदेव के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए थे और तब उन्होंने अपना द्विभुज रूप धरान किया था | जो लोग नास्तिक हैं या भक्तिविहीन हैं, उनके लिए इस रहस्य को समझ पाना अत्यन्त कठिन है | जिन विद्वानों ने केवल व्याकरण विधि से या कोरी शैक्षिक योग्यताओं के आधार पर वैदिक साहित्य का अध्ययन किया है, वे कृष्ण को नहीं समझ सकते | न ही वे लोग कृष्ण को समझ सकेंगे, जो औपचारिक पूजा करने के लिए मन्दिर जाते हैं | वे भले ही वहां जाते रहें, वे कृष्ण के असली रूप को नहीं समझ सकेंगे | कृष्ण को तो केवल भक्तिमार्ग से समझा जा सकता है, जैसा कि कृष्ण ने स्वयं अगले श्लोक में बताया है |