SLOKA 18.16
अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
श्लोक 18.16
तत्रैवं सति कर्तारमात्मनं केवलं तु यः |
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः || १६ ||
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तत्र – वहाँ; एवम् – इस प्रकार; सति – होकर; कर्तारम् – कर्ता; आत्मानम् – स्वयं का; केवलम् – केवल; तु – लेकिन;यः – जो; पश्यति – देखता है; अकृत–बुद्धित्वात् – कुबुद्धि के कारण; न – कभी नहीं; सः – वह; पश्यति – देखता है; दुर्मतिः – मुर्ख ।
भावार्थ
अतएव जो इन पाँच कारणों को न मानकर अपने आपको ही एकमात्र कर्ता मानता है, वह निश्चय ही बहुत बुद्धिमान नहीं होता और वस्तुओं को सही रूप में नहीं देखता ।
तात्पर्य
मुर्ख व्यक्ति यह नहीं समझता कि परमात्मा उसके अन्तर में मित्र रूप में बैठा है और उसके कर्मों का संचालन कर रहा है । यद्यपि स्थान, कर्ता, चेष्टा तथा इन्द्रियाँ भौतिक कारण हैं, लेकिन अन्तिम (मुख्य) कारण तो स्वयं भगवान् हैं । अतएव मनुष्य को चाहिए कि केवल चार भौतिक कारणों को ही न देखे, अपितु परम सक्षम कारण को भी देखे । जो परमेश्र्वर को नहीं देखता, वह अपने आपको ही कर्ता मानता है ।