अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
 

श्लोक 18.15


शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।


न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चते तस्य हेतवः ॥
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शरीर – शरीर से; वाक् – वाणी से; मनोभिः – तथा मन से; यत् – जो; कर्म – कर्म; प्रारभते – प्रारम्भ करता है; नरः – व्यक्ति; न्याय्यम् – उचित, न्यायपूर्ण; वा – अथवा; विपरितम् – (न्याय) विरुद्ध; वा – अथवा; पञ्च – पाँच; एते – ये सब; तस्य – उसके; हेतवः – कारण ।

भावार्थ

 

मनुष्य अपने शरीर, मन या वाणी से जो भी उचित या अनुचित कर्म करता है, वह इन पाँच कारणों के फल स्वरूप होता है ।
 
 
 
तात्पर्य



इस श्लोक में न्याय्य (उचित) तथा विपरीत (अनुचित) शब्द अत्यन्त महत्त्व पूर्ण हैं । सही कार्य शास्त्रों में निर्दिष्ट निर्देशों के अनुसार किया जाता है और अनुचित कार्य में शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना की जाती है । किन्तु जो कर्म किया जाता है, उसकी पूर्णता के लिए पाँच कारणों की आवशयकता पड़ती है ।

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