SLOKA 18.14
अध्याय 18 : उपसंहार – संन्यास की सिद्धि
श्लोक 18.14
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् |
विविधाश्र्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् || १४ ||
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अधिष्ठानम् – स्थान; तथा – और; कर्ता – करने वाला; करणम् – उपकरण यन्त्र (इन्द्रियाँ); च – तथा; पृथक्-विधम् – विभिन्न प्रकार के; विविधाः – नाना प्रकार के; च – तथा; पृथक् – पृथक पृथक; चेष्टाः – प्रयास; दैवम् – परमात्मा; च – भी; एव – निश्चय ही; अत्र – यहाँ; पञ्चमम् – पाँचवा ।
भावार्थ
कर्म का स्थान (शरीर), कर्ता, विभिन्न इन्द्रियाँ, अनेक प्रकार की चेष्टाएँ तथा परमात्मा – ये पाँच कर्म के कारण हैं ।
तात्पर्य
अधिष्ठानम् शब्द शरीर के लिए आया है । शरीर के भीतर आत्मा कर्म करता है, जिससे कर्म फल होता है । अतएव वह कर्ता कहलाता है । आत्मा ही ज्ञाता तथा कर्ता है, इसका उल्लेख श्रुति में है । एष हि द्रष्टा स्रष्टा (प्रश्न उपनिषद् ४.९) । वेदान्त सूत्र में भी ज्ञोऽतएव (२.३.१८) तथा कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् (२.३.३३) श्लोकों से इसकी पुष्टि होती है । कर्म के उपकरण इन्द्रियाँ है और आत्मा इन्हीं इन्द्रियों के द्वारा विभिन्न कर्म करता है । प्रत्येक कर्म के लिए पृथक् चेष्ठा होती है । लेकिन सारे कार्यकलाप परमात्मा की इच्छा पर निर्भर करते हैं, जो प्रत्येक हृदय में मित्र रूप में आसीन है । परमेश्र्वर परम कारण है । अतएव जो इन परिस्थितियों में अन्तर्यामी परमात्मा के निर्देश के अन्तर्गत कृष्णभावनामय होकर कर्म करता है, वह किसी कर्म से बँधता नहीं । जो पूर्ण कृष्णभावनामय हैं, वे अन्ततः अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं होते । सब कुछ परम इच्छा, परमात्मा, भगवान् पर निर्भर है ।