अध्याय 16 : दैवी और आसुरी स्वभाव
 

श्लोक 16.22


एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः |


आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् || २२ ||


 

एतैः – इनसे; विमुक्तः – मुक्त होकर; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; तमः-द्वारै – अज्ञान के द्वारों से; त्रिभिः – तीन प्रकार के; नरः – व्यक्ति; आचरति – करता है; आत्मनः – अपने लिए; श्रेयः – मंगल, कल्याण; ततः – तत्पश्चात्; याति – जाता है; पराम् – परम; गतिम् – गन्तव्य को |

भावार्थ


हे कुन्तीपुत्र! जो व्यक्ति इन तीनों नरक-द्वारों से बच पाता है, वह आत्म-साक्षात्कार के लिए कल्याणकारी कार्य करता है और इस प्रकार क्रमशः परम गति को प्राप्त होता है |

 

तात्पर्य
 
 

मनुष्य को मानव-जीवन के तीन शत्रुओं – काम, क्रोध तथा लोभ – से अत्यन्त सावधान रहना चाहिए | जो व्यक्ति जितना ही इन तीनों से मुक्त होगा, उतना ही उसका जीवन शुद्ध होगा | तब वह वैदिक साहित्य में आदिष्ट विधि-विधानों का पालन कर सकता है | इस प्रकार मानव जीवन के विभिन्न विधि-विधानों का पालन करते हुए वह अपने आपको धीरे-धीरे आत्म-साक्षात्कार के पद पर प्रतिष्ठित कर सकता है | यदि वह इतना भाग्यशाली हुआ कि इस अभ्यास से कृष्णभावनामृत के पद तक उठ सके तो उसकी सफलता निश्चित है | वैदिक साहित्य में कर्म तथा कर्मफल की विधियों का आदेश है, जिससे मनुष्य शुद्धि की अवस्था (संस्कार) तक पहुँच सके | सारी विधि काम, क्रोध तथा लोभ के परित्याग पर आधारित है | इस विधि का ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य आत्म-साक्षात्कार के उच्चपद तक उठ सकता है और इस आत्म-साक्षात्कार की पूर्णता भक्ति में है | भक्ति के बद्धजीव की मुक्ति निश्चित है | इसीलिए वैदिक पद्धति के अनुसार चार आश्रमों तथा चार वर्णों का विधान किया गया है | विभिन्न जातियों (वर्णों) के लिए विभिन्न विधि-विधानों की व्यवस्था है | यदि मनुष्य उनका पालन कर पाता है, तो वह स्वतः ही आत्म-साक्षात्कार के सर्वोच्चपद को प्राप्त कर लेता है | ता उसकी मुक्ति में कोई सन्देह नहीं रह जाता |

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