अध्याय 14 : प्रकृति के तीन गुण
 
श्लोक 14.12



लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा |
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ || १२ ||
 
 
 
लोभः – लोभ; प्रवृत्तिः – कार्य; आरम्भः – उद्यम; कर्मणाम् – कर्मों में; अशमः – अनियन्त्रित; स्पृहा – इच्छा; रजसि – रजोगुण में; एतानि – ये सब; जायन्ते – प्रकट होते हैं; विवृद्धे – अधिकता होने पर; भरत-ऋषभ – हे भरतवंशियों में प्रमुख |

भावार्थ


 

हे भरतवंशियों में प्रमुख! जब रजोगुण में वृद्धि हो जाती है, तो अत्यधिक आसक्ति, सकाम कर्म, गहन उद्यम तथा अनियन्त्रित इच्छा एवं लालसा के लक्षण प्रकट होते हैं |



तात्पर्य



रजोगुणी व्यक्ति कभी भी पहले से प्राप्त पद से संतुष्ट नहीं होता, वह अपना पद बढाने के लिए लालायित रहता है | यदि उसे मकान बनवाना है, तो वह महल बनवाने के लिए भरसक प्रयत्न करता है, मानो वह उस महल में सदा रहेगा | वह इन्द्रिय-तृप्ति के लिए अत्यधिक लालसा विकसित कर लेता है | उसमें इन्द्रियतृप्ति की कोई सीमा नहीं है | वह सदैव अपने परिवार के बीच तथा अपने घर में रह कर इन्द्रियतृप्ति करते रहना चाहता है | इसका कोई अन्त नहीं है | इन सारे लक्षणों को रजोगुण की विशेषता मानना चाहिए |

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