SLOKA 13.32
अध्याय 13 : प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
श्लोक 13.32
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |
शरीरस्थोSपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || ३२ ||
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः |
शरीरस्थोSपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते || ३२ ||
अनादित्वात् – नित्यता के कारण; निर्गुणत्वात् – दिव्य होने से; परम – भौतिक प्रकृति से परे; आत्मा – आत्मा; अयम् – यह; अव्ययः – अविनाशी; शरीर-स्थः – शरीर में वास करने वाला; अपि – यद्यपि; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; न करोति – कुछ नहीं करता; न लिप्यते – न ही लिप्त होता है |
भावार्थ
शाश्र्वत दृष्टिसम्पन्न लोग यह देख सकते हैं कि अविनाशी आत्मा दिव्य, शाश्र्वत तथा गुणों अतीत है | हे अर्जुन! भौतिक शरीर के साथ सम्पर्क होते हुए भी आत्मा न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है |
तात्पर्य
ऐसा प्रतीत होता है कि जीव उत्पन्न होता है, क्योंकि भौतिक शरीर का जन्म होता है | लेकिन वास्तव में जीव शाश्र्वत है, वह उत्पन्न नहीं होता और शरीर में स्थित रह कर भी, वह दिव्य तथा शाश्र्वत रहता है | इस प्रकार वह विनष्ट नहीं किया जा सकता | वह स्वभाव से आनन्दमय है | वह किसी भौतिक कार्य में प्रवृत्त नहीं होता | अतएव भौतिक शरीरों के साथ संपर्क होने से जो कार्य सम्पन्न होते हैं, वे उसे लिप्त नहीं कर पाते |